“सृजन से” के दो अंक भेजने के लिए धन्यवाद। हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाएं धर्म युग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान के प्रकाशन से बड़े बड़े प्रकाशक जुड़े हुए थे जिनके पास न तो धनाभाव था और न ही विज्ञापनों की कमी। लेकिन व्यवसायिक दृष्टिकोण से आर्थिक लाभ न होने के कारण दोनो उच्च कोटि की पत्रिकाएं बुरी तरह लड़खड़ा गईं। यह एक कटु सत्य है कि आधुनिक परिवेश में हिन्दी की एक मनोरम पत्रिका निकालना एक सहज कार्य नहीं है। आपने एवं आपके यहयोगियों ने अपने सामर्थ्य से “सृजन से” का प्रकाशन आरम्भ कर इस दिशा में एक साहसिक और सराहनीय
कार्य किया है।
“सृजन से” अंक जनवरी-मार्च, 2010 के संपादकीय में मीना पाण्डे जी की “सृजन से" की प्रथम दस्तक पाठकों के द्वार पर” एक सशत्त, सुरूचि पूर्ण और ठोस दस्तक लगी। मेरी यह सम्मति है कि यह सुन्दर दस्तक “सुजन से” के प्रत्येक अंक में बड़े आकार में “नव वर्ष की हर बेला पर” के स्थान पर “इस वर्ष की हर बेला पर” के साथ प्रकाशित हो।
श्री के. पाण्डे जी एवं श्री महेश चन्द्र पाण्डे जी के लेख प्रथम और द्वितीय अंक में बड़े ही सारगरभित एवं विद्वतापूर्ण लगे।
मेरे प्रिय लेखक श्री इला चंद्र जोशी जी का पहाप्राण कवि निराला पर रोचक व अनूठा संस्मरण मन को आल्हादित कर गया। साथ ही उस महान कवि का अपने आक्रोश पर अचम्भित संतुलन जिसने श्री इला चंद्र जोशी जी को उनकी चपेट से बचा लिया हृदय को गुदगुदा गया।
पद्मश्री डा. यशोधर मठपाल जी से जोशी जी के साक्षातकार में डा. मठपाल जी की अभिव्यक्ति कि उनके लिए कला ईश्वर प्राप्ति का साधन है यदि हमें एक कला महर्षि का बोध कराता है तो महान लेखिका अमृता प्रीतम जी की अभिव्यक्ति कि “सच और परमात्मा को मैंने प्रेम के साथ साए की तरह आते हुए देखा है।” सच और ईश्वर का प्रेम में निरूपण कराता है।
पत्रिका में छपी कहानियां, कविताएं, गजलें और गीत, सब रुचिकर लगे। और सबसे अच्छी बात यह लगी कि पत्रिका में भाषा दोष नगण्य देखने को मिला जिसका श्रेय संपादक मंडल को जाता है।
कुल मिलाकर मुझे “सृजन से” एक उत्तम साहित्यिक पत्रिका लगी जिससे आशा की जा सकती है कि उसमें निरन्तर परिमार्जन होता रहेगा और साहित्यिक गुणवत्ता बढ़ती रहेगी।
सदैव शुभाकांक्षी
जय प्रकाश डंगवाल।
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Tuesday, August 10, 2010
Feedback from JP Dangwal ji
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