दोनों अंक अभी हफ्ता भर पहले ही मिले हैं। धन्यवाद। नईमा जी से बड़ा मार्मिक साक्षात्कार आपने लिया- पढ़कर बहुत अच्छा लगा।कई बातें मालूम हुई जो नहीं जानता था। दयानंद अनंत की कहानी ‘रुपयों का पेड़‘ अच्छी लगी। चेखव की सभी कहानियाँ मेरी पढ़ी हुई हैं- पता नहीं कैसे इस कहानी को पढ़े होने की याद नहीं। अद्भुत कहानी है। मेरा सुझाव है प्रत्येक अंक में ऐसी ही एक जबरदस्त कहानी विश्व-साहित्य के भण्डार से निकाल चुनकर अपने पाठकों को परोसा करें। इससे पाठकों की संवेदना का परिष्कार एवं विस्तार होगा। पत्रिका का आकर्षण भी बढ़ेगा। इस वक्त प्रवेशांक सामने नहीं है। कई चीजें पढ़ी थी, हाँ दीप जोशी पर लेख मेरे लिए नई जानकारी- आपके पाठकों के लिए भी प्रेरणास्पद था। इस तरह के प्रेरक पोट्रेट भी होने चाहिए, सही यथार्थ गौरव-बोध और आत्मविश्वास जगाने वाली सामग्री जीवनीपरक। ब्रजमोहन साह के काम को याद किया- अच्छा लगा। भाई मो0 सलीम को उनके बचपन से जानता रहा हूँ। इस अंक में हेमन्त ने यशोधर मठपाल का साक्षात्कार लिया है, पहली बार इनके बारे में जरुरी जानकारी देती सामग्री छपी देखी। हेमन्त ने सही जगहों पर कुरेदा, विस्तृत और प्रेरणादायी जीवन और कर्म के विविध पहलुओं को खोला, उनका जीवन पहाड़ के युवकों के लिये अनुकरणीय होना चाहिये। संग्रहालय उनका मेरा देखा हुआ है उसे लेकर उनकी चिन्ता वाजिफ है, कलेश उपजाती है। उत्तराखण्ड सरकार के हित में ही है, यह कि वह अविलम्ब उसके संरक्षण की व्यवस्था करे और उन्हें चिन्तामुक्त करे। यह उसका दायित्व है। सृजन परिक्रमा के अंतर्गत नितिन जोशी की यह समझबूझ भरी टिप्पणी कि “गोविन्द चन्द्र पाण्डेय अपने जीवन व्यापी अत्यन्त मूल्यवान और स्थायी महत्व के कृतत्व के लिये इस विलम्बित पदम्श्री से कहीं अधिक और उच्चतर सम्मान के अधिकारी थे”। प्रश्न चिन्ह तो लगता ही है इन चयन समितियों पर निसंदेह। मैं नहीं समझता गोविन्द चन्द्र जी के समकक्ष कोई दूसरा विद्धान उस क्षेत्र का इस देश में वर्तमान होगा। यह मैं सुनी सुनाई नहीं कहता उनके कृतित्व के समझबूझ के पक्के आधार पर कह रहा हूँ। वे अनुठे विद्धान ही नहीं अनूठे कवि और अनुवादक भी हैं- यह कितने लोग जानते हैं? स्वयं अपने पहाड़ के ही एकेडेमिक व साहित्यिक क्षेत्रों में कार्यरत कितने लोग उनके किये धरे का महत्व जानते होंगे? कितनों ने उनके वेद के संस्कृत काव्य अतुलनिय काव्यानुवादों को पड़ा होगा? मुझे कतई भरोसा नहीं है इसका। तो फिर हम किस संस्कृति की बात करते हैं? जो उसे उपजाते हैं सचमुच के सर्जक और उनवेषक हैं उसके, उन्हीं का गुण-ज्ञान नहीं बिल्कुल तो फिर हमारे जीवन की, गतिविधियों की क्या कीमत है? जो कृतज्ञ नहीं, उसकी कर्मठता भी (तथाकथित) क्या होगी? किसी आंचलिक संकीर्ण आग्रह से नहीं, बल्कि कितना सार्वदेशीक और व्यापक दृष्टि वाला संस्कार है इस अंचल से जुड़ी ऐसी विभूतियों का इसका कुछ तो बोध नई पीड़ी को हो। मुझे लगता है पहाड़ से जुड़ी साहित्यिक पत्रकारिता इस स्तर की चेतना उपजाने में सहायक हो सकती है, होना चाहिये। पुनश्चः अंक सामने नही है और स्मृति इन दिनों गड़बड़ हो जाती है। मो0 सलीम पर जो मैंने पड़ा- अत्यंत भावोत्तेजक, और पुनः ही पुरानी यादें जगाता लेख, वह आप की ही पत्रिका में पड़ा था या अन्यत्र? जहाँ तक स्मृति साथ देती है, आपके ही प्रवेशांक में पड़ा था। ठीक है ना? क्या ये अल्मोड़ा में हैं अभी? या लखनऊ में? मैं एक माह उधर रहूँगा इसीलिये पूँछ रहा हूँ। बस तो, आपके प्रयत्नों के सफलता हेतु शुभकामनायें।
पद्मश्री डा0 रमेश चन्द्र शाह,
भोपाल (म0प्र0)
पद्मश्री डा0 रमेश चन्द्र शाह,
भोपाल (म0प्र0)
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