सृजन से अंक २ (अप्रैल-जून २०१०) प्राप्त हुआ.   प्रवेशांक पर दिए गए कुछ सुझाव इस अंक में समाहित करने के लिए   साधुवाद.  अभी विद्यार्थियों एवं उत्तराखंड की खुसबू पर आपको मंथन करना   है. ५२ पृष्ठ के इस अंक में सभी प्रकार के पाठकों का ध्यान रखा गया है.   पद्मश्री डा.यशोधर मठपाल का सग्रहालय मैंने जून २००२ में देखा है.        
  डा मठपाल के बारे में ‘ सृजनसे’ ने पाठकों की जिज्ञासा तृप्ति की है.   डा साहब के शब्द ' विदेश में किसी के कार्य को मान्यता मिलने पर हमारी   नीद खुलती है', 'जो अ-सरकारी होता है वही असर-कaरी होता है', 'कला का    आत्मा से जुडाव होता है', '७२ वर्ष की आयु में स्वयं  को २७ का समझताहूँ', 'गाँधी दर्शन आत्मशुद्धि और आत्मसंतोष के लिए  बहुत बड़ी चीज है',   ह्रदय को छू जाते हैं.   मादक द्रव्यों तथा निहित स्वार्थियों को अपनी    चित्रकला से दूर का उनका संकल्प समाज के हित में है.  डा मठपाल    अपनी दिव्य सोच ,त्याग , तपस्या और निरंतर परिश्रम से ही हमारे    प्रेरणास्रोत बने हैं. 
  'सृजनसे ' में डा जीवन सिंह मेहता का सामाजिक सरोकार भी आत्मसात    करने लायक है. सुतर ही नहीं पीरुल लाने में ही पहाड़ की नारी का जीवन    चला जाता है.  कहीं कहीं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र  या डिस्पेंसरी हैं पहाड़ में    परन्तु वहां न कर्मचारी हैं न दवा.  कुछ भी नहीं मिलने के कारन लोग वहां जाने    से कतराते हैं.  गीता पाण्डेय के लेख में होली-दीपावली के प्रदूषण पर भी चन्द   शब्द होते तो अच्छा था.  आज जहाँ होली शराब और रासायनिक रंगों से प्रदूषित    हो गयी है वहीँ दीपावली पटाखों और मिलावट की चोट से जख्मी हो गयी है.   अब परम्पराओं को बदलने का समय आ गया है.  विसर्जन के नाम पर नदियाँ    नालों में बदल गयी हैं.  अब हमें जल-विसर्जन की जगह भू-विसर्जन का नारा    देना होगा.  हम भावी पीढी के लिए ऐसी दुनिया न छोड़ें जिसमें जल, वायु  और    पृथ्वी पूर्ण रूपेण प्रदूषित हो गयी हो.  
'जिंदगी की जंग' की समीक्षा के लिए केवल इतना ही कहूँगा कि संपादक    मीना पाण्डेय ने सभी कहानियों को पढ़ा ही नहीं चबा डाला.  डा. बेचैन और    दिनेश सिंदल की गजलें  ' सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए' और 'समंदर    इसलिये खारा हुआ है' बहुत कुछ कहती हैं.  झूसिया की गमक , गुणानंद की झलक,   सोनी पन्त की अभिव्यक्ति , उर्मिल की सभ्यता, नीमा की मांसी, मयंक की होली ,   संपादक की पाती, महेश पाण्डेय की मन की जीत, पोखरिया का नाट्य प्रेम,   अनंत का रुपियों का पेड़, कुशावर्ती का नागर स्मरण , डा. आशीष की रंग में    दहशत, डा. शाह का कल इसी कागज पर... सभी पढनीय एवं मनोरम हैं.    डा. अम्बर का कवियों का वर्गीकरण तथा मंतव्य और गंतव्य  का सन्देश अच्छा    लगा.  पाशा की बिलख बिलबिला देती है, डा. कुमुद के सयाने लोग खूब लूट रहे हैं.   नितिन जोशी की  सृजन परिक्रमा अच्छी लगी .  हेमंत जोशी एकाध गीत का    मुखड़ा भी देते तो अच्छा होता.  डा. साहू का कथन 'सृजन' कलाकार का स्वाभाविक    गुण है, अकाट्य सत्य है.    और अंत में ‘ भारत किस दिन अपनी भाषा में बोलेगा ‘ पर इतना ही कहूँगा कि   १४ सितम्बर से पहले और बाद में भी यदि हम मंथन जारी रखें तो एक दिन हम    अवश्य अपनी भाषा में बोलेंगे .  अंग्रेजी नहीं जानने वालों द्वारा अंग्रेजी में विवाह    कार्ड छपाना एक 'शान '  बन गयी है, ekdam  झूठी शान.
Sahityakaar
Puran Chandra Kandpal
Rohani, New Delhi
No comments:
Post a Comment